न
तो सारी इच्छाओं की पूर्ति हो सकती है और न ही शरीर के रहते हुए इच्छा रहित स्थिति
हो सकती है. इसलिए सरल और सीधा मध्य मार्ग यही है की मनुष्य अपनी इच्छाओं को
नियंत्रित , व्यवस्थित , मर्यादित करे. अपने सारे दिन के कार्यों पर विचार कर
अ;पनी दिनचर्या तथा जीवनचर्या को व्यवस्थित करे.जिससे अंत में पश्चाताप न हो की
मैंने अमुक कार्य तो किया ही नहीं? शरीर और संसार के व्यव्हार के लिए जो आवश्यक
है, उन्ही की ही पूर्ति करे.
व्यर्थ अपने आपको इच्छाओं का दास न बनाये. जब इच्छाएँ
अपने वश में होंगी तो व्यक्ति इनके पूरा न होने पर विचलित नहीं होगा. जो अपनी
इच्छाओं को नियंत्रित नहीं करता वह कभी स्वतंत्र नहीं हो सकता और स्वतंत्र ही सबसे
बड़ा सुख है. जिस प्रकार घर की सुन्दरता चीज़ों की अधिकता या कमी से सम्बन्ध नहीं
रखता, अपितु घर की सुन्दरता घर में उपस्थित चीज़ों की व्यवस्था पर निर्भर होती है.
वैसे ही जीवन में सुख,शांति, संतोष, और आनंद की प्राप्ति का सम्बन्ध धन, ज्ञान आदि
से नहीं है, अपितु इनकी तथा दिनचर्या और
जीवनचर्या की व्यवस्था पर निर्भर है.
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