मनुष्य के हर कार्य के पीछे उसकी श्रद्धा ही होती है। उसके अपने व्यक्तित्व के पीछे भी उसकी अपनी श्रद्धा है। मनुष्य जिस किसी भी काम में परी शक्ति से लगा हुआ है, उस कार्य को करवाने में जो ऊर्जा उसे आगे बढ़ा रही है वह और कुछ नहीं श्रद्धा-भावना ही है। श्रद्धा का स्वरूप बहुत विस्तृत है। श्रद्धा शब्द का विच्छेद किया जाए तो श्रत्धा अर्थात् सत्य-धा। मतलब सत्य को धारण कर लेना, सच्चाई के करीब हो जाना ही श्रद्धा है। दूसरे शब्दों में सत् अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक रहना और उसे धारण किए रहना ही श्रद्धा है। किसी व्यक्ति के प्रति आपकी श्रद्धा है तो आपकी भाषा उसकी जैसी बन जाएगी। जिसके प्रति आपकी श्रद्धा है, उसी के जैसा आपका व्यक्तित्व हो जाएगा। बोलना, चालना, उठना, बैठना, चलना उस जैसा हो जाएगा। जिसके प्रति आपकी श्रद्धा है आपके गुण और चिंतन उसके अनुरूप हो जाएंगे।श्रद्धा की अलग-अलग ग्रन्थों में महिमा गाई गई है। हरिवंश पुराण के अनुसार-'श्रद्धैव सर्वधर्माणां मातेव हितकारिणी' अर्थात् श्रद्धा ही सभी धर्मों में मां की तरह हितकारिणी है। कर्त्तव्य पालन में मां की तरह सारा हित साधने वाली है। श्रद्धा से ही मनुष्य को लोक परलोक में सफलता मिलती है। श्रद्धा से जपा गया मंत्र सद्यः फलदायी होता है।
आदि शंकराचार्य ने श्रद्धा के बारे में कहा-'आस्तिक्य बुद्धिः श्रद्धा' अर्थात् परमात्मा को मानने वाले बुद्धि ही श्रद्धा है।
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