मनुष्य विचारशील
प्राणी है, विचार ही उसके आचार और व्यवहार को अच्छा और बुरा बनाते है. कर्म और
सुकर्म होना व्यक्ति की विचारधारा पर ही आधारित है. धर्मशास्त्र व्यक्ति में
वैचारिक क्रांति पर उसके स्वरूप को बदलने की शक्ति सामर्थ्य रखते है. इसी प्रकार
संतपुरुष की वाणी में भी अदभुत सामर्थ्य है मनुष्य को दिशा दे सकने के लिए.
महापुरषों ने और निति विशारदों ने कहा अपने अज्ञान, अन्धकार को हटाओ और ज्ञान का
प्रकाश करो अपने मानस में. वे व्यक्ति को मुर्ख नहीं ज्ञान के प्रकाश से ज्ञान
सम्पन्न बनाना चाहते थे.
इसलिए कहा है की मुर्ख वह नहीं जो अक्षर ज्ञान नहीं रखता
बल्कि वह व्यक्ति है जो गुण और विद्यारहित होकर भी अभिमानी हो, दीन दरिद्र होकर भी
बड़ी बड़ी इच्छाएं करें परन्तु कर्म से जी चुराए. अन्याय अत्याचार से और खोटे कर्म करके
धन कमाना चाहे और थोडा धन प्राप्त करते ही अभिमान में चूर होकर इतराने लगे. अपनी
क्षमता से अधिक बड़े काम अपने हाथ लेने वाला फिर समय पर उन कामों को पूरा न कर सकने
वाला व्यक्ति भी मुर्ख है. वह मुर्ख है जो अपने पास की वस्तु से संतुष्ट नहीं होता
और दूसरों के सुख सुविधा से मन ही मन ईर्ष्या करता रहता है. अपनी प्रशंसा सुनकर
दुखी होता है. दूसरों की निंदा करने में बहादुरी दिखता हो और अपनी आलोचना सहन करने
की हिम्मत न रखता हो उसे भी मुर्ख समझो. दुसरे की उन्नति से ईर्ष्या रखता हो अपने
समान किसी को न समझता हो, बिना मांगे राय देता हो और किसी की राय सलाह लेने में अपनी
बेईय्ज्ती समझता है तथा बड़ों की उचित सलाह सुनकर भी न मानता हो. उसे मूर्खराज
मानना चाहिए. वह अपने कर्म के परिणाम देखकर एक दिन सर पकड़कर रोता अवश्य है.
उसे भी अनाडी
कहना जो दोस्त, दुश्मन की, अच्छे बुरे की, हित और अनहित की, ऊंच नीच के पहचान न कर
सके. हमेशा आशंकित बना रहे तनिक का ताड़ बनाकर डरता रहे, थोड़ी सी मुसीबत में घबरा
जाए. सुखा आने पर झूटी शान दिखाए. समय का सही उपयोग नहीं करता और समय हाथ से निकल
जाने पर पछताया करता है सभ्य व्यवहार करना नहीं जानता और अपने हित अहित को समझाना
नहीं चाहता. हर कार्य में अति करता हो क्योंकि अति चुप भी अच्छी नहीं और न अति
बोलना अच्छा नहीं. जिस विषय की जानकारी न हो वहन चुप रहना अच्छा होता है बुरा
बोलने से न बोलना अच्छा होता है.इसलिए अच्छे ग्रंथों, धार्मिक और अध्यात्मिक
पुस्तकों के अध्ययन, सत्संगों से अपने मन में ज्ञान का प्रकाश भरो.
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