मैथलीशरण गुप्त ने लिखा है उज्जवल अतीत था, भविष्य भी महान है,
संभल जाए यह जो की वर्तमान है.
जो अपने वर्तमान में मस्त है, जो आज का उपयोग करे, वही सुखी है. भारत
के एक चिन्तक ने लिखा है की परमपिता परमात्मा ने मुझे हर रोज एक दिन दिया.
परमात्मा ने प्रत्येक मनुष्य को एक सोने के सिक्के की तरह खनकता हुआ दिन दिया है.
दुनिया के बाज़ार में उस खर्च करने के लिए भेजा .लेकिन हम उस दिन को अपने लिए खर्च
न करके दूसरों के लिया लुटा बैठते है. कंगाल होकर घर आते है. अगले दिन फिर एक नया
दिन हाथ में मिलता है लेकिन इंसान उसे गवांकर आ जाता है. काश, इंसान वह दिन अपने
लिए खर्च कर पाटा. अपने उत्थान के लिए उसे खर्च करता और पिता परमात्मा को धन्यवाद
करता की तूने मुझे एक अवसर दिया , तेरी बहुत बहुत कृपा है. हाथ में दिन ऐसे निकलते
जाते है. जैसे मुट्ठी में किसी ने पानी को कैद किया हो और पानी बूँद बूँद कर हाथ
से निकलता जाता है. इंसान की सोचने समझने की शक्ति ख़त्म हो रही है . एक अंधी दौड़
में हम लोग शामिल है. जिंदगी भर हम सुख का आयोजन करने की चाह में है. हम इच्छा
करते है की एक मुकाम ऐसा आये, जब मैं बहुत खुश हो जाऊं. हम अपने काम को “ सेट ”
करते-करते जिंदगी से अपसेट हो गए. सबकी अवस्था बनाते- बनाते स्वयं की व्यस्था
बनाते- बनाते स्वयं की व्यवस्था अव्यस्था में बदल जाती है और एक दिन ऐसा आता है की
जीने का ढंग आता है, लेकिन जीवन ख़त्म हो जाता है.
जीवन ख़त्म हुआ तो जीने का ढंग आया,
शमा बुझ गई तो महफ़िल में रंग आया.
मन की मशीनरी ने तब ठीक चलना सिखा,
जब बूढ़े शरीर के हर पुर्जे पर जंग आया.
फुर्सत के वक्त में न सिमरन का वक्त निकला,
जीवन ख़त्म हुआ तो जीने का ढंग आया.
जब आखरी घडी आती है, तब इंसान कहता है की भगवान्, एक अवसर दे दो, ताकि
तुम्हारा नाम जब सकूं. उस समय अवसर मिल भी गया तो किस काम का इसलिए जीवन के एक एक
लम्हे का उपयोग करना सिख लो.
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