मन को प्रशिक्षित करना ही ध्यान है, क्योंकि ध्यान की अतल गहराई में मन तरंग-रहित सरोवर वन जाता है और तब परमात्मा उसमें आने दिव्य स्वरूप में प्रतिबिम्बित होते है, जैसे शांत झील में चंद्रमा प्रतिबिम्बित होकर अपनी सौन्दर्यपूर्ण धवल छटा को बिखेरता है, उसी तरह शांत मन में प्रभु स्वयं प्रतिष्टित होकर उसे आनंदपूर्ण बना देते है. ध्यान में मन की चंचलता और व्यग्रता को त्यागना होता है.
मन का स्वभाव है गतिशील रहना, टिकना नहीं, रुकना नहीं, सोचता रहता है, कभी कुछ कभी कुछ, संसार के बारे में, रिश्तों के बारे में, सुख के बारे में, घटनाओं के बारे में, कुछ न मिले तो अतीत के बारे में, अतीत न मिले तो भविष्य के बारे में, बस मन को इस भटकन से, विचरण से यात्रा से हटाकर परमपावन परमात्मा के चरणों में एकाग्र करके शांत और आनंदित होना ही ध्यान है. ध्यान से मन को विशिष्टता प्राप्त होती है. पृथ्वी,स्वर्ग,समस्त ब्राह्मण जलतत्व, पर्वत,मनुष्य और देवगण, सभी ध्यान करते है और केवल ध्यान द्वारा ही ये सभी अपनी महानता और दिव्यता प्राप्त करते है. शक्ति, साहस और क्षमता केवल ध्यान से ही प्राप्त होती है. ध्यान को ब्रह्मा मानकर आराधना करे. जो भी ध्यान करता है, वह साधक विस्तृत क्षितिज में स्वेच्छा से विचरण करने की शक्ति प्राप्त कर लेता है. जब मन उसमें टिक गया, तो वहां ही है असीम आनंद और असीमित शक्ति का भण्डार, वहां केवल एक ही चैतन्य सत्ता के दर्शन होते है, जो सर्वग्य है, असीम है और परमपुनीत है. जहाँ हमारा मन ठहर जाए, उसी में हमारी वृति, बजाए विषयों की ओर बहने के बहुत समय तक रुकी रहे, वही ध्यान है.
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