Param pujye Shri Sudhanshuji Maharaj, born on May2, 1955,commonly referred to as Maharaj Shri or Gurushri by his worldwide followers is a preacher from India. He founded Vishaw Jagriti Mission in 1991 which aims to performing spriritualactivities such as Sewa,Simran, Swadhaye, Satsang, Sadhna. Under his wise and well-recognised leadership, the Mission has over 80 branches, 22 Ashrams(old age homes) and 3 charitable Hospitals. throughout the world.

परम पूज्य श्री सुधांशुजी महाराज प्रवचांश

58) संतुलित मन वाला व्यक्ति ही विनम्र व्यवहार कर सकता है- श्री सुधांशु जी महाराज


जीवन की सफलता में जितना सहायक मानसिक संतुलन होता है उतना शायद विश्व का अन्य कोई साधन कदाचित ही उपयोगी सिद्ध हो सकता है। मनुष्य के समक्ष परिस्थितियों की प्रतिकूलता से जूझने और अनुकूलता को निर्मित करने के लिए अनेक विकल्प रहते है। उनमें से कुछ अनाड़ीपन से भरे होते है और कुछ समझदारी से। अब चयन किसका किया जार, इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए
गुण-दोष इंडसक और जो सरल और बढ़ता है और समानता के निकट विद्यालय में पढ़ने को आवश्यकता नहीं 4.मी. उसे अपना सका संलित मनअपेक्षाकृत शीघ्र पहना है। जिसका मस्तिष्क को शांत संतुलित बनाएवाला व्यक्ति ही विनय और अच्छा निंदक, विरोधी अधिक होते रखने की विद्या से यह सामान्य स्वभाव व्यवहार कर सकता है।
उसे उपेक्षा, असहयोग स्वयं ही बन जाता है। जो अपने सेवक, उसी में यह विशेषता जिज्ञासा का सामना करना पड़ता है, स्वामी, मित्र, परिवार के सदस्यों, होती है जो मैत्री को वह अपने सरल कामों में देरी और पड़ोसी आदि के प्रति अपनी ओर से बढ़ाने और कटता को घटाने में सहायक अड़चन आते देखता है। सौजन्य ही वह शिष्टाचार का व्यवहार करता है उसके सिद्ध हो सके। शिष्टाचार की सामान्य सी कला है जो मित्र बढ़ाती और समक्ष अवमानना ठहर नहीं सकती। भूल भी अब लोगों को खल जाती है विरोधीजनों को घटाती है। सज्जनता फलस्वरूप वह सदैव फायदे में ही और वे उसे अशिष्टता, अवमानना मान किसी के ऊपर अहसान करना नहीं रहता है। जो गलतियां हो चुकी है, उन्हीं बैठते हैं। फलस्वरूप मित्र को कम और बल्कि अपने लिए ही सम्मान और पर सदा सोचते रहने से मन अपने विरोधी को वह उपेक्षा अप्रिय लगती है, सहयोग का क्षेत्र विस्तृत करता है। जिसे आपको अपराधी की स्थिति में पाता है जो वस्तुतः कर्ता के मन में थी ही नहीं। अपने कार्य-व्यवहार में जनसंपर्क और आत्मविश्वास खो बैठता है। ऐसी यह बात याद रखना चाहिए कि जिसके साधना होता है उसे उपहास, व्यंग्य, स्थिति में उचित यही है कि जिन भूलों मित्र, शुभचिंतक, समर्थक, और तिरस्कार की आदत छोड़ ही देना का जिस रूप में परिमार्जन-प्रायश्चित प्रशंसक अधिाक होते है यह आगे चाहिए। इसके लिए शिष्टाचार के किसीहो सकता हो उसे किया जाए।


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