सवाल यह नहीं
है, की सद्गुरु तुम्हे क्या दे सकते है, बल्कि यह है की तुम ले क्या सकते हो. इस
सोच में शंका में मूलभूत त्रुटी है, की सद्गुरु के पास देने के लिए क्या कितना है
? सारा सवाल, सम्पुर्ण शंका ,पूरा प्रश्न तुम्हारी पात्रता का है. अमृत बरसता हो
और किसी का अकडू बर्तन पैंदी को ऊपर किय औंधा पड़ा हो या उस पर अहंकार का ढक्कन लगा
हो, तो वह सुखा ही रहेगा. या फिर पात्र छिद्र्वाला हो तो भी भरने की सारी कोशिशें
नाकाम हो जायेंगी, पूर्ण प्रयत्नों के बाद भी खाली ही रहेगा. हाँ किनारों पर या
तली की परत में थोडा गीलापन, थोड़ी आद्रता जरुर होगी, जो कुछ थोडा कुछ प्राप्ति का
अहसास जरुर देगी. पात्र सीधा भी है, उसमें छिद्र भी नहीं है, पर गन्दा मलिन है तो
बरसा हुआ अमृत गन्दला हो जाएगा, अमृत का अमृत्व जाता रहेगा. अम्बर से कितना ही
पवित्र बादल बरसे, कीचड़ में मिलकर कीचड़ ही हो जाता है. पूर्ण प्रश्न तुम्हारी झोली
का है. सद्गुरु समान रूप से बरसते है और तुम्हारी पात्रता के अनुसार उनमें
मात्रात्मक और गुणात्मक भेदों की प्रतीति होती जाती है.
सद्गुरु के पास
देने के लिए अनंत है, बस तुम अपनी पात्रता की चिंता करो. शिष्य की पात्रता बढती है
, तो सद्गुरु की देने की सुविधा बढ़ जाती है . पात्रता संकीर्ण हो, तो सद्गुरु को
सोचना पड़ता है, उनकी करुना को नए –नए उपाय खोजने पड़ते है, कि मेरा शिष्य कैसे भरा-
भरा हो जाए. सद्गुरु के अन्तस् को नए- नए ढंग इजाद करने पड़ते है, की उनके हृदये
में विराजा हुआ विराट राम शिष्य के संकुचित हृदये में कैसे समाये.
गुरु अमृत बन बरसा था.
जो प्याले प्यासे थे, वे तृप्त हुए,
बाकी छलक गये
No comments:
Post a Comment