धर्म शास्त्रों का कथन है
की भाग्य प्रतिकूल हो जाए, देव रूठ
जाए तो विशेष चिंता की बात नहीं क्यूंकि सद्गुरु की कृपा से भाग्य और भाग्य विधाता
दोनों अनुकूल हो सकते है. यदि गुरु ही रूठ जाए तो मनुष्य के लिए कहीं और ठौर नहीं
है. गुरु ,मन्त्र और इश्वर इनमें जितनी अधिक श्रधा होती है
ये उतना ही अधिक कलयाणकरी होते है. गुरु में निश्चय ही सत्व, रजस और तामस तीनों ही भाव रहते है. गुरु,ब्रहम,विष्णु एवं शिव का स्वरूप है.
सर्वप्रथम ब्रह्मा रूप में गुरु शिष्य का
निर्माण करते है फिर विष्णु रूप में शिष्य का भरण-पोषण करते है और अंत में शिष्य
के समस्त दुर्गुण व् अज्ञान को नष्ट करते है. गुरुसत्ता में एक साथ सृजन, पोषण और विलय की शक्ति होती है. जब शिष्य की गुरु चरणों में अटूट श्रधा,
भक्ति होती है तो उसके चारों पुरुषार्थ सिद्ध हो जाते है.
करो प्यार सद्गुरू से कल्याण हो तुम्हारा।
दामन उसी का था वो सच्चा वही सहारा ।।
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